#ब्रैकिंग बहस : उदारवाद vs समाजवाद

 ब्रेकिन बहस : उदारवाद vs समाजवाद


"टीवी पर आजकल समाचार कम आते है और बहस ज्यादा होती है। समाचार दिखाना बहुत खर्चे का काम है, बहस में कुछ नहीं लगता, दो तीन निठल्ले, बेकार लोगो को जमा करो, स्टूडियो में भी बुलाने की जरूरत नहीं है, घर से ही यह निठल्ले बहस से जुड़ जातें है, दमड़ी का खर्चा नहीं और घंटो तक बक-बक करते रहो, विज्ञापन भी मिल जाते है। हींग लगे, ना फ़िटकरी और रंग चोखा।


यही सोच कर आज हमने भी दो प्रत्याशी को अपनी बहस में बुलाया है। तो आज की बहस शुरू करते है, आज हमारे प्रत्याशी है उदारवाद और समाजवाद। दोनों अपना अपना पक्ष रखेंगे और हमें बताएँगे की कौन बेहतर है। दोनों बारी बारी से अपना पक्ष रखेंगे, टीवी की बहस जैसी कुकरहाव यहाँ नहीं होगी। दोनों पक्ष यह समझ ले कि, बहस अगर कुकरहाव के स्तर पर पहुंची तो बहस को बीच में ही बंद कर दिया जायेगा। आखिर में कौन सही हैं और कौन गलत यह भी लेखक तय करेगा। जैसे टीवी कि बहस में टीवी चैनल मालिक कि मर्जी चलती है वैसे ही यहाँ भी लेखक (जो अपने आप को बहुत बड़ा अकलमंद की दुम समझता है) का निर्णय सर्वोपरिय और सर्वमान्य होगा।

हमारे देश में लोकतंत्र या उदारवाद है इसलिए हम शुरवात लोकतंत्र से करते हैं। तो उदारवाद या लोकतंत्र जी बताईये आप को क्यों लगता है की आप समाजवाद से बेहतर है ? "


उदारवाद : "देखिये उदारवाद को आप दो प्रमुख भागो में बाँट सकते है एक लोकतंत्र और दूसरा मुक्त व्यापार। पहले हम लोकतंत्र की बात करते है। लोकतंत्र तीन स्तंभों पर टिका है यह तो आप सब को पता ही है, विधायिका (Legislature), न्यायपालिका (Judiciary) और कार्यपालिका (Executive)। विधायिका का काम है, जनता की भलाई के लिए कानून बनाना, न्यायपालिका का काम है, जनता की भलाई के लिए   कानून का पालन करवाना और कार्यपालिका का काम है, यह दोनों काम करने में,  न्यायपालिका और विधायिका की मदद करना। 


इसमें अपना एक बांस मिडिया भी लगाया रहता है, उसे लगता है वह भी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। लेकिन हम सब को पता है की आज के मिडिया की औक़ात ताजमहल पर बैठे हुए कौवे से ज्यादा नहीं है। कौवा अगर ताजमहल के कंगूरे पर बैठ जाये, तो उसे लगता है सब उसे ही देख रहे हैं, वह अपने आपको बहुत महत्वपुर्ण समझने लगता है।  जबकि हक़ीकत में लोग ताजमहल को देखते है,  कौवे को नहीं, कौवा हो या ना हो किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। यह मैं आजकल की टीवी पत्रकारिता की बात कर रहा हूँ। तो हम अभी मिडिया की बात नहीं करते है और आगे बढ़ते है।"


"तो मैं क्या कहा रहा था ? हाँ याद आया, लोकतंत्र के तीन स्तंभों की बात हो रही थी। लेकिन यही तीन स्तंभ तो समाजवाद के भी है, फिर हम दोनों में फर्क क्या है ?"

"सबसे बड़ा फर्क जो मुझ लोकतंत्र को मेरे प्रतिद्विंदी समाजवाद से अलग करता है, वह है आज़ादी। लोकतंत्र का मूल है हर तरह की आजादी। लोकतंत्र में मतदाता और उपभोक्ता (Consumer) हमेशा सही होता है। लोकतंत्र मानता है की मतदाता जो भी चुनेगा सही होगा और उपभोक्ता जिसे चाहेगा वही चलेगा।


लोकतंत्र यह नहीं देखता की मतदाता कितना पढ़ा-लिखा है, जो मतदाता वोट देने आया है उसे उस वोट के बारे में जानकारी भी है या नहीं, उस वोट की ताकत क्या है ?  जो भी आदमी इस देश में पैदा हुआ है, वह लोकतंत्र की नज़रो में मतदाता है, और उसे वोट देने का अधिकार है।

वैसे मतदाता को अपने वोट के लिए जागरूक बनाना भी लोकतंत्र से चुनी हुई सरकार का ही काम है, और चुनाव आयोग यह काम करता भी है लेकिन कोई मतदाता अपने मत देने के अधिकार के प्रति कितना जागरूक हुआ है, यह नापने का कोई पैमाना, कोई मानक, चुनाव आयोग के पास नहीं है। ना ही चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार है की वह ऐसी कोई परीक्षा लेकर मतदाता को वोट देने के लिए पास या फेल कर पाए।

ऐसी कोई परीक्षा लेने की अनुमति, मैं लोकतंत्र कभी भी अपनी किसी सरकार को या अपने किसी आयोग को नहीं दे सकता। चाहे जागरूक हो या ना हो, मेरे लिए हर मतदाता महत्वपूर्ण है, मैं कभी भी अनुमति नहीं दूंगा की किसी भी प्रकार से,  कभी भी मेरे मतदाता की आज़ादी पर आंच आए। करोड़पति हो या अत्यंत निर्धन दोनों ही मेरे लिए बराबर है, दोनों को आज़ाद रहने का हक़ है।"


जिस प्रकार से आपको वोट देने का अधिकार है उसी प्रकार से आपको चुनाव में खड़े हो कर अपने खुद की सरकार बनाने का भी अधिकार मैं अपनी जनता को देता हूँ। लेकिन आपको  किसे वोट देना है यह बताना मेरा काम नहीं है। काम तो छोड़िये यह मैं अपने मतदाताओं की आजादी के खिलाफ समझता हूँ और इसे मैं गलत मानता हूँ।


मेरी नज़र में लोकतंत्र का विकल्प सिर्फ और अधिक लोकतंत्र हैं। आप अपनी मर्जी की सरकार चुनते है, फिर वह सरकार अपनी मर्जी से काम करती है, इसका बेहतर विकल्प यह हो सकता है की, सरकार चुने जाने के बाद भी मतदाता से पूछ कर, उसकी राय ले कर अपने आगे के काम करे। अधिक लोकतंत्र क्या होता है इसे इस तरह समझा जा सकता है की, अगर सरकार के पास 20 करोड़ रूपये हैं तो इस रूपये से सरकार ने टीवी टावर लगाना चाहिए यह फ्लाईओवर बनाना चाहिए यह निर्णय भी सरकार ने जनता से पूछ कर करना चाहिए। यूरोप के स्विजरलैंड जैसे कई देशो में यह हो भी रहा है।


अब हम बात मुक्त व्यापार की करते है, उदारवाद का दूसरा हिस्सा --

कोई अगर 5 करोड़ की कार में सड़क पर घूमता है और कोई अगर उसी सड़क पर बैठ 50 रूपये रोज कमाता है, मेरे लिए दोनों बराबर है, क्योकि मैंने दोनों को सामान अवसर दे रखे हैं। समाजवाद की तरह मेरे पास कोई सर्वहारा या बुजुर्वा वर्गीकरण नहीं है। मैं लोकतंत्र, समाज को वर्गों में नहीं बाँटता, सभी के लिए मैं सामान अवसर देता हूँ। फिर उस अवसर से कोई कैसे फ़ायदा उठता है यह देखना मेरा काम नहीं है।"


"मैं उपभोक्ता को सर्वोपरि समझता हूँ। मुझे लगता है की उपभोक्ता ही उदारवाद में राजा होता है, उपभोक्ता के पास अगर पैसे है तो वह जैसे चाहेगा वैसे उस पैसे का उपयोग करेगा। उसे जो पसंद आएगा वही बाजार में चलेगा। जैसे मैं मतदाता के बीच में नहीं आता, उसी प्रकार मैं उपभोक्ता के निर्णय के बीच भी कभी नहीं आता। मेरा काम है कि मैं उपभोक्ता को मानसिक, शारीरिक, और आर्थिक दृष्टि से इतना सक्षम बना दूँ कि उपभोक्ता खुद ही अपने लिए सही वस्तु का, सही सेवा का चयन कर सके। उपभोक्ता ने क्या चयन करना चाहिए यह बताना मेरा काम नही हैं। उपभोक्ता के लिए क्या सही है क्या गलत यह बताना मैं उपभोक्ता की या मतदाता की आज़ादी के खिलाफ मानता है। "


"मैंने अपनी जनता की भलाई के लिए स्कूल - कॉलेज खोले, लेकिन आप अपने जीवन में क्या बनना चाहते है यह निर्णय मैं नहीं लेता। स्कूल हैं, कॉलेज है, आप चाहे डॉक्टर बने, चाहे इंजीनियर या अनपढ़ रहें, यह आपकी मर्जी है। मैं आपको पूरी छूट देता हूँ अपने जीवन को अपने हिसाब से जीने की।


आपको क्या लगता है, यह उदारवाद या लोकतंत्र कहाँ से निकल कर आए है ? जब हमने सैकड़ो साल तानाशाही और राजशाही की गुलामी में बिताये, तब कही जाकर मानव सभय्ता ने उत्कृष्ट शाशन व्वयस्था के रूप में लोकतंत्र को विकसित किया है।

मुझे लगता है दुनिया में आज़ादी से बड़ा कुछ नहीं और उदारवाद या लोकतंत्र से बेहतर कोई विकल्प नहीं।"


उदारवाद की इतनी विस्तृत आत्म व्याख्या से मैं मंत्रमुग्ध हो गया। मुझे लगा अब यह बहस यही समाप्त कर देनी चाहिए लोकतंत्र से अच्छी कोई व्यवस्था हो ही नहीं सकती। मुझे लगा की अब समाजवाद कुछ और तर्क देने के लायक बचा ही नहीं और यह अब खुद ही हार मान जायेगा।

मैं : " वाह वाह वाह लोकतंत्र जी,   क्या अकाट्य तर्क दिए आपने मैं तो आपका क़ायल हो गया। मुझे लगता नहीं अब कुछ बचा है इस बहस को आगे बढ़ाने के लिए। कहिये समाजवाद जी कुछ कहना है आपको ?"


समाजवाद : " अरे आप भी अजीब एंकर है ? एक ही पक्ष की बात सुनी और अपना निर्णय सुनाने की उतावली करने लगे। पहले मेरे बारे में भी तो सुन लीजिये। मैं बात लोकतंत्र के उठाए मुद्दों से ही शुरू करता हूँ।

ऊपर लोकतंत्र के गुणगान में पूरे समय आजादी का गान ही हम सुनते रहे। समाजवाद आजादी से ज्यादा समानता पर भरोसा करता है। मुझे लगता है की आदमी को आजादी की उतनी जरूरत नहीं है जितनी समानता की है। दुनिया के सारे लोग अगर समान तरीके से जीवन बिताएंगे तो मनुष्यता का ज्यादा भला होगा।

आज़ादी अगर एक आदमी को 5 करोड़ की कार चलाने की छूट देती है और दूसरे को 50 रूपये भी कमाने के अवसर नहीं मिलते है, तब ऐसी आज़ादी का क्या मतलब है ?


आप कह रहे हो की हमने जनता की भलाई के लिए अच्छे से अच्छे स्कूल खोल दिए, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज खोल दिए, आपका काम ख़त्म, लेकिन क्या यह देखना आपका काम नहीं है की यह किस के काम आ रहे है ? 

अच्छे स्कूल की फीस आज साल कि तीन से चार लाख रूपये है, जो आदमी 50 रूपये भी नहीं कमा पा रहा है वह कैसे इसमें अपने बच्चो को पढ़ा सकता हैं ?


आप कह रहे हो की उदारवाद में कोई भेद भाव नहीं होता, कोई सर्वहारा, कोई बुजुर्वा वर्ग नहीं होता, लेकिन क्या यह भेदभाव नहीं है ? क्या आपने जनता को अमीर और गरीब दो वर्गों में नहीं बाँट दिया ? अमीरो को और अमीर होने की आजादी और गरीब को और भी गरीब होने की आज़ादी आपका लोकतंत्र दे रहा है। अमीर का बच्चा बचपन से अच्छे स्कूल में जाता है, अच्छी से अच्छी कोचिंग क्लास में पड़ता है, उसके घर में उसके लिए एक अलग कमरा होता है। क्या यह सब बातें उसे गरीब से अलग नहीं कर देतीं ? या यह सभी विशेष सुविधांए से अमीर के बच्चे को जन्मजात विशेष प्रधानता नहीं मिल जाती ? "


"गरीब का तो पूरा परिवार ही एक कमरे में रहता है, कोचिंग क्लास तो छोड़िये उसके पास तो कॉलेज की फीस भी भरने के भी पैसे नहीं होते। फिर यह कैसी आज़ादी है ?

समाजवाद में सरकार इन सभी बातों का ख्याल रखती है, घर सभी के एक जैसे होते हैं, किस का बच्चा क्या बनेगा इसका निर्णय उसका बाप नहीं करता बल्कि सरकार हर बच्चे की रुचि और क्षमता के आकलन कर उस बच्चे के भविष्य का निर्णय करती है, फिर चाहे बच्चे के माँ बाप अमीर हो या गरीब। कोई बच्चा अगर गरीब के घर पैदा होता है, तो इसकी सज़ा उस बच्चे को क्यों मिलने चाहिए। किस के घर पैदा होना है यह बच्चा तो नहीं निर्णय लेता फिर आज़ादी के नाम पर उसे सज़ा क्यों मिलनी चाहिए ?


यह आज़ादी सिर्फ सुनने - सुनाने में ही अच्छी लगती है हकीकत में यह बहुत भयानक होती है।

आप कह रहे हो हज़ारो सालो की गुलामी के बाद मानव सभय्ता ने यह लोकतंत्र विकसित लिया है, लेकिन इस लोकतंत्र की उम्र है ही कितनी 1980 से लेकर 2020 तक बस ? द्वितीय विश्वयुद के बाद 1945 से 1980 तक का इतिहास आप देखो तो अमेरिका को छोड़ कर पूरी दुनिया में समाजवाद का ही बोलबाला था। रूस, चीन, पूर्वी जर्मनी, नार्थ कोरिया, यहाँ तक की अपने भारत में भी इमरजेंसी के बाद से समाजवाद का बोलबाला था।


आप लोग इतना गुणगान कर रहे थे लोकतंत्र का लेकिन एक महामारी ने इस लोकतंत्र को घुटनो के बल बिठा दिया। बड़ी बड़ी निजी फैक्टरियाँ बंद होने की कगार पर है, हज़ारो लोगो कि नौकरियां चली गयी। क्या यही आज़ादी है ? अगर कुछ महीने आपकी फैक्ट्री मुनाफा नहीं कमा रही तो आप लोगो को नौकरी से निकाल दोगे ? इन्ही लोगो ने सालो साल,  हर साल आपको करोडो रूपये का मुनाफा कमा कर दिया, तो क्या अब इन पूँजीपतियों का काम नहीं है की इस दुर्दशा के समय गरीब मजदूरों का ध्यान रखे ? अगर साल - छह महीने इन्हे बिना काम के वेतन देना भी पड़े तो क्या फर्क पड़ेगा। ज्यादा से ज्यादा यही होगा ना की यह अरबपति भी गरीब हो जायेंगे तो क्या हुआ ? अरबपति बने रहना क्या इनका जन्मजात हक़ है ? की चाहे लाखो लोग भूखे मर जाये लेकिन इन पूंजीपतियों की दौलत पर कोई आँच नहीं आनी चाहिए ? यह है आज़ादी ? मैं पूछता हूँ इन अरबपतियों को इतना रुपया जमा करने का हक़ किस ने दिया ? कैसे बने यह कुछ लोग अरबपति ?"


"यह सही हैं की समाजवाद में एक ही पार्टी की सरकार होती है, मतदाताओं को भी उसे ही चुनना पड़ता है। चुनाव में कौन खड़ा होगा यह निर्णय भी पार्टी ही लेती है, लेकिन एक अनपढ़ - ज़ाहिल - अपराधी को चुनने की आज़ादी देकर, जनता का क्या हित कर लेंगे यह लोकतंत्र की दुहाई देने वाले ? लोकतंत्र निष्पक्ष चुनाव की बातें करता है क्या सही में आज चुनाव निष्पक्ष होते है ? आज चुनाव में खर्च की सीमा 20 लाख रूपये है, अब बताईये क्या एक आम आदमी आज इस देश में  20 लाख खर्च कर सकता है ? 20 लाख तो कितने लोगो ने अपनी जिंदगी में देखे भी नहीं होंगे। फिर यह 20 लाख तो सिर्फ चुनाव आयोग को दिखाने के लिए होते है, जबकि सभी को पता है, जीतने वाला प्रत्याशी करोडो खर्च करता है। और करोडो खर्च क्यों करता है, क्या जनता की सेवा के लिए, नहीं करोडो से अरबो बनाने के लिए। फिर क्या मतलब से ऐसे चुनाव पर सरकारी खजाने से करोडो बर्बाद करने का।"


"लोकतंत्र कहता है जनता से पूछ कर हर काम करना चाहिए, लोकतंत्र वैसे ही कछुवे की चाल से चलता है फिर अगर सरकार हर काम के लिए जनता के पास जाने लगे तो हो चुका काम। अरे अगर आपको टीवी टॉवर और फ्लाई-ओवर के बीच निर्णय लेना है तो पार्टी अपनी सहज बुद्धि से सोचेगी और जनता के भले के लिए जो जरूरी है, तत्काल निर्णय लेगी। "

"अब आप ख़ुद सोचिये आपको लोकतंत्र में भूखे मरने की आज़ादी चाहिए या समानता से, अमीर-गरीब का भेद मिटा कर, जीवन बिताना पसंद आएगा ?"


अब मैं क्या जवाब देता अब मुझे समाजवाद सही लगने लगा, मैं इसका जवाब देता उसके पहले ही लोकतंत्र अपने बचाव में आगे आ गया।


लोकतंत्र : "अगर समानता इतनी ही अच्छी है तो पूरी दुनिया से समाजवाद का आज विलोप क्यों हो गया है ? चीन और रूस जैसे समाजवाद का झंडा पूरी दुनिया में बुलंद करने वाले देश भी आज मुक्त व्यापार की मलाई खा रहे है। "


"पार्टी यह निर्णय लेगी की कौन क्या बनेगा, कौन क्या करेगा यह सब किसी छोटे गाँव के लिए ठीक है जहाँ सब एक दूसरे को जानते हैं लेकिन एक हज़ारो लाखो  वर्ग किलोमीटर में फैले हुए, देश को आप इस प्रकार की विचारधारा के भरोसे नहीं चला सकते।  यही कारण था सभी देशो से समाजवाद के  ख़ात्मे का, इससे भाईभतीजावाद ही बड़ा और उस पर तुर्रा यह की आप पार्टी के खिलाफ कुछ नहीं बोल सकते।

समाजवाद में ही यह हो सकता है की रूस के राष्ट्रपति ख़ुद ही अपने आप को 2035 तक राष्ट्रपति चुन लेते है, और कोई उसे रोक भी नहीं सकता। भाईभतीजावाद लोकतंत्र में भी होता है लेकिन कम से कम कोई इसके खिलाफ आवाज तो उठा सकता है। लोकतंत्र में कोई भी किसी के खिलाफ जा सकता है, किसी का भी विरोध करने के लिए आप आजाद है।


लोकतंत्र में कोई साधारण आदमी भी देश के प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ जांच की मांग कर सकता है। यह होती है आज़ादी और यह होती आज़ादी की ताक़त "


"आप के बच्चे को क्या बनना चाहिए यह भी समाजवाद में पार्टी की सरकार निर्णय लेती है, इसमें होता यह है कि पार्टी के रुसूख़ वाले लोगो के बच्चे तो इंजीनियर और डॉक्टर बनते है और आम जनता किसान और मजदूर। आप अपने बच्चे को इंजीनियर बनाना के लिए सरकार से अनुमति मांगते है और सरकार मना कर देती है, आप को जवाब मिलता है देश में इंजीनियर बहुत है, लेकिन देश में किसानो की कमी है इसलिए सरकार चाहती आप का बच्चा किसान बने। किसान बनने के बाद भी आप क्या उगाएंगे यह भी सरकार ही आप को बताएगी। "


समाजवाद : "यह सिर्फ बोलने की आज़ादी है, मुँह खोलो और बड़-बड़ करते रहो लेकिन हम सभी को पता है लोकतंत्र में आम आदमी को कितनी आज़ादी मिलती है।  लोकतंत्र कह रहा है की देश का आम आदमी भी देश के प्रधानमंत्री की जांच की मांग कर सकता है, क्या सही में ऐसा है ? क्या सिर्फ संविधान में लिख देने से ही आम आदमी को यह अधिकार मिल जाता है ? प्रधानमंत्री तो दूर की बात है, अगर किसी नगरसेवक के खिलाफ भी आम आदमी पुलिस के पास जाता है तो उस की कोई रिपोर्ट भी कोई नहीं लिखेगा।  फिर कैसी है यह लोकतंत्र की आज़ादी ? "


"समाजवाद में अगर सरकार आपको बताती है की क्या उगाना है तो फिर बाढ़ या अकाल में फसल ख़राब होने पर किसान के परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा भी सरकार लेती है, लोकतंत्र की तरह नहीं की सभी किसानो का कर माफ़ कर दिया और अब बड़े किसान तो मर्सडीज में घूमते है और उनके खेतो में गरीब मजदूर काम करते है। गरीब किसान को बीज खरीदने के लिए भी कर्जा लेना पड़ता है और फसल ख़राब होने पर आत्महत्या ही एक आखरी विकल्प बचता है। "

इस बात का जवाब देने के लिए लोकतंत्र अभी कमर कस ही रहा था की मैंने बहस बंद करने का इशारा कैमरामैन को कर दिया। यह बहस को अगर चलने दिया जाये तो मुझे लगता है महीनो सालो तक चलती रहेगी, फिर भी कोई निर्णय हो पायेगा इसमें शक है। सालो से उदारवाद और समाजवाद के बीच यह बहस चल ही रही है। इन दोनों बूढो में कौन सही हैं, कौन गलत यह बताना मेरे बस की बात नहीं थी, कैमरा बंद कर अपनी जान बचाना ही मेरे लिए अब एकमात्र विकल्प बाकि बचा था।

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